Saturday, April 30, 2011

महाराजा रुद्र ने बनाया ऐतिहासिक अटरिया देवी मंदिर

ऐतिहासिक अटरिया देवी मंदिर में श्रद्धालुओं की संख्या हर वर्ष बढ़ती ही जा रही है

(जहांगीर राजू रुद्रपुर)

तराई के लोगों की आस्था का प्रतीक बन चुके ऐतिहासिक अटरिया देवी मंदिर की स्थापना चंद राजाओं के वंशज महाराजा रुद्र ने की थी। जिसके बाद से ही इस मंदिर में नवरात्र पर मेला लगता है, जो 17 दिनों तक चलता है। मंदिर में लगने वाले मेले में हर वर्ष दो लाख से भी अधिक श्रद्धालु पहुंचते हैं।
उल्लेखनीय है कि रुद्रपुर स्थित अटरिया देवी का मंदिर ऐतिहासिक होने के साथ ही मां दुर्गा के मानने वालों के लिए आस्था के द्वार के रुप में जाना जाता है। इतिहासकार शक्ति प्रसाद सकलानी बताते हैं कि अग्रसेन अस्पताल के पास 16वीं सदी में महाराजा रुद्र का किला हुआ करता था। जहां से वह आसपास के क्षेत्रों में शिकार करने जाया करते थे। किंवदंति हैै कि एक दिन महाराजा रुद्र शिकार करने के लिए आसपास के जंगल में निकल गए थे। जंगल में बरगद के पेड़ के पास उनके रथ का पहिया फंस गया था। काफी देर तक रथ वहां से नहीं निकला को महाराजा को पेड़ के नीचे नींद आ गयी।
 इस दौरान उन्हें सपना आया कि  बरगद के पेड़ के पास मां दुर्गा की मूर्ति कि वह प्राण प्रतिष्ठा कर मंदिर का निर्माण कराएं। जिसके बाद महाराजा रुद्र ने बरगद के पेड़ के पास दुर्गा की मूर्ति की स्थापना कर मंदिर का निर्माण कवाया। जिसके बाद से ही मंदिर में नवरात्र पर हर वर्ष 17 दिन तक मेला लगता है। वर्तमान में मंदिर में दुर्गा के साथ ही काली, हनुमान व भैरव की मूर्ति की स्थापित है। इस मंदिर में हर वर्ष तराई व उत्तर प्रदेश के विभिन्न क्षेत्रों से दो लाख से भी अधिक श्रद्धालु पहुंचते हैं। मंदिर परिसर में 17 दिन तक चलने वाले मेले में विभिन्न क्षेत्रों से आने वाले व्यवसायी हर वर्ष लाखों रुपये का कारोबार करते हैं। अपनी प्रसिद्धि के चलते अटरिया देवी मंदिर में लगने वाले मेले का स्वरुप हर वर्ष भव्य होता जा रहा है। मेला प्रबंधक अरविंद शर्मा व पुजारी महंत पुष्पा देवी ने बताया कि मंदिर में पूजा अर्चना करने वाले हर व्यक्ति की मनोकामना पूरी होती है। उन्होंने बताया कि मंदिर परिसर में मौजूद प्राचीन बरगद के पेड़ पर धागा बांधकर महिलाएं जो भी मनोती मांगती हैं वह अवश्य पूरी होती है।

इस वर्ष मंदिर में जुटे लाखों श्रद्धालु

रुद्रपुर। मां अटरिया देवी मंदिर में नवरात्र पर शुरु हुए इस मेले में इस वर्ष भी दो लाख लाख से अधिक श्रद्धालु पहुंचे। इस वर्ष यह मेला 30 अप्रैल तक चला। मंदिर की पुजारी महंत पुष्पा देवी ने बताया कि नवरात्र पर मंदिर में पूजा अर्चना करने का खास महत्व है। इस दिन मंदिर में पूजा अर्जना कर जो भी मनोकामना मांगी जाती है, वह अवश्य पूरी होती है।

कार्बेट पार्क से विलुप्त हुई कईं दुर्लभ प्रजातियां

 कार्बेट के इतिहास में हुए एक शोध में खुलासा

पाड़ा, उदबिलाव व घड़ियाल भी खतरे की जद में


चंदन बंगारी

देशभर में बाघों के सुरक्षित बसेरे के रूप में ख्यातिप्राप्त कार्बेट नेशनल पार्क अपनी स्थापना की 75 वीं वर्षगांठ के मौके पर प्लेटिनम जुबली समारोह मना रहा है। भारत के जंगलों में विलुप्ति की कगार पर पहुंचे वनराज को बचाने की सफलता हासिल कर चुके कार्बेट पार्क की सरहदों के भीतर करीब आधा दर्जन वन्य प्राणियों के वजूद के खात्मे की विडंबना भी जुड़ी हुई है।
जंगली कुत्ते
 हाल ही में पार्क के सात दशकों से भी पुराने इतिहास पर हुए शोध में यह खुलासा हुआ है कि पार्क की स्थापना के समय पाई जाने वाली आधा दर्जन दुर्लभ जीवों की प्रजातियां अब लुप्त हो चुकी हैं। हालत यह है कि पार्क में पाई जाने वाली कई अन्य प्रजातियों पर भी खतरे के बादल मंडरा रहे है। प्लेटिनम जुबली के अवसर पर कार्बेट पार्क के इतिहास से पर्यटकों को रूबरू कराने के लिए ईको टूरिज्म विंग ने ढिकाला में फोटो प्रदर्शनी लगाई है। फोटो प्रदर्शनी के लिए पार्क के इतिहास के दस्तावेज एकत्र करते समय यह हैरतअंगेज मामले का खुलासा हुआ। दरअसल 1936 में कार्बेट राष्ट्रीय उद्यान की स्थापना के समय यहां पाए जाने वाले जीव-जन्तुओं की सूची तैयार की गई थी। सूची में शामिल जंगली कुत्ते, लकड़बग्घा, लोमड़ी पार्क से पूरी तरह से गायब हो चुके है। जिम कार्बेट की किताबों व पार्क के पहले डीएफओ चैम्पियन की फोटोग्राफों में दिखाई देने वाले दुर्लभ जीव पैंगोलिन व रैटल का अस्तित्व भी पार्क से पूरी तरह से समाप्त हो चुका है।
किसी जमाने में पार्क के आसपास दिखने वाले चौसिंघे व बारहसिंघों भी अब लुप्त हो चुके है। 1977 में आखिरी ंबार बारहसिंघे को कार्बेट के ढिकाला जोन में देखा गया था। लुप्त हो चुके जीवों के अलावा अब वर्तमान में पार्क में बहुत कम संख्या में मौजूद हॉग डियर यानि पाड़ा, ऊदबिलाव, घड़ियाल अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे है। इन प्रजातियों पर संकट के बादल मंडरा रहे है। कार्बेट इतिहास पर शोध करने वाले मुख्य वन संरक्षक ईको टूरिज्म व पार्क के पूर्व निदेशक राजीव भरतरी ने बताया कि पार्क से लुप्त हो चुके जंगली कुत्तंे मध्य भारत, पेंच व कान्हा टाइगर रिजर्व में व लकड़बग्गा कभी राजाजी नेशनल पार्क में दिखाई देते है।
पैंगोलिन
 उन्होंने बताया कि बारहसिंघा कभी-कभार प्रदेश में झिलमिल ताल के आसपास दिखाई पड़ता है।  वहीं मामले में पूछे जाने पर कार्बेट पार्क के उपनिदेशक सीके कवदियाल ने लुप्त हुई प्रजातियों के बारे में किसी भी तरह की जानकारी से साफ इनकार कर दिया। उन्होंने कहा कि फिलहाल पाड़े के संरक्षण के लिए बाड़ा बनाने की योजना है। जिसका प्रस्ताव भारत सरकार को भेजा गया है, उसकी मंजूरी मिलने का इंतजार है। घड़ियाल संरक्षण को लेकर अभी कोई योजना नही है। हालांकि पार्क से दुर्लभ वन्यजीवों के लुप्त होने के पीछे कारणों को तलाशे जाना बेहद जरूरी है। वहीं लुप्त होने की कगार पर पहुंच चुके वन्यजीवों को बचाने की चुनौती भी कार्बेट प्रशासन के समक्ष है। मगर केवल बाघ संरक्षण में ही जुटे वन मकहमे के आला अधिकारियों को बाकी वन्यजीवों को बचाने की चिंता करने की आवश्कता है। अगर ऐसा न हुआ तो कार्बेट में बसेरा करने वाले वन्यजीवों को विलुप्त होते देर नही लगेगी।

 

Saturday, April 16, 2011

फिनलैंड में आयोजित कार्यशाला में भाग लेंगी नैनीताल की दीप्ती

इएससीएपी ने किया आमंत्रित

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                                                                                                       रवींद्र पांडे नैनीताल
 नगर की मूल निवासी तथा वर्तमान में नेशनल ला विश्वविद्यालय भोपाल में द्वितीय वर्ष की छात्रा दीप्ती आर्या फिनलैंड की राजधानी हेलंसिकी में 11 से 15 जून 2011 तक होने वाली अंतर्राष्ट्रीय कार्यशाला में प्रतिभाग करेंगी। बाल अधिकार के क्षेत्र में रूचि रखने वाली 20 वर्षीय दीप्ती ने नेट पर इसके लिए आवेदन किया था। चयन के बाद वह संस्था की नियमित सदस्य बन गई हैं और प्रतिवर्ष संस्था के कायर्कक्रमों में भाग ले सकेंगी। दूरभाष पर हुई वार्ता में दीप्ती ने बताया कि यूरोपियन सोसाइटी फार चाइल्ड एडोलोसेंट साइकेट्री  (इएससीएपी) संस्था विश्वभर में चाइल्ड राइट्स एंड मनोविज्ञान के क्षेत्र में कार्यरत है। संस्था की ओर से प्रतिवर्ष अंतराष्ट्रीय कार्यशाला आयोजित की जाती है। इस वर्ष इंटरनेट पर कार्यशाला बावत जानकारी मिलने पर उन्होंने इसके लिए आवेदन किया। आवेदन के साथ भेजे गए प्रपत्र में उन्होंने अपने अध्य्यन के आधार पर विषय से संबंधित अपना पक्ष भी रहा। उन्होंने व्यवस्था पर सवालिया निशान लगाते हुए कहा कि जब बाल अधिकारों के संरक्षण के लिए विश्व भर के 192 देशों ने हस्ताक्षर किए हैं तो फिर भूख, दर्द, क्रूरता, मानसिक उत्पीडऩ से पीड़ित बच्चे के मामले समाज में क्यो मौजूद हैं।
 उन्होंने क्या कड़े नियम बाल अधिकारों के हनन को रोकने में सक्षम हैं विषय पर भी अपनी बात रखी। भारत के परिप्रेक्ष्य में उन्होंने कहा कि भारत में 6 से 18 वर्ष के 50 फीसदी बच्चे स्कूल नहीं जा पाते, जबकि कक्षा 3 से 5 के बीच में 50 फीसदी लडक़े व 58 फीसदी लड़कियों की शिक्षा छूट जाती है। देश में 60 फीसदी बच्चे एनीमिक हैं, 1000 में से 15 बच्चे अपना पंाचवा जन्मदिन नहीं देख पाते। सैक्स वर्कर में सें 40 फीसदी 5 से 18 वर्ष तक की लड़कियां हैं। उन्होंने बताया कि बीते दिनों संस्था ने उन्हें चयनित कर कार्यशाला के लिए आमंत्रित किया। खर्चे बावत पूछने पर उन्होंने बताया कि फिनलैडं में रहने व खाने का खर्चा संस्था देगी जबकि टिकट के लिए कई संस्थानों ने पहल की है, जिनसे वार्ता जारी है।
दीप्ती ने बताया कि बचपन से संबंधित क्षेत्र में रूझान रहा है तथा भविष्य में भी वह बाल अधिकारों के लिए कार्य करना चाहती हैं।  उनके पिता अजय लाल वन विभाग में प्रधान मानचित्रकार हैं जबकि माता गगनेश्वरी ग्रहणी हैं। दीप्ती का कहना है कि संबंधित क्षेत्र में कार्य के लिए उन्हें अभिभावकों का भरपूर सहयोग मिलता है।

Thursday, April 14, 2011

संजय को डेयरी से मिली आर्थिक समृद्धि की नई राह


संजय लखौटिया की मॉडर्न डेरी बनी युवाओं के लिए प्रेरणा का माध्यम।

 लखौटिया की डेयरी में पल रहे हैं 350 जानवर

प्रतिदिन 2800 लीटर दूध का होता है उत्पादन 

डेयरी में हाईजिनिक दूध के उत्पादन की व्यवस्था

क्षेत्र के 30 से अधिक लोगों को मिला रोजगार

जहांगीर राजू रुद्रपुर

काशीपुर के रम्पुरा गांव निवासी संजय लखौटिया को डेयरी व्यवसाय ने आर्थिक समृद्धि की नई राह दिखायी है। उन्होंने गांव में मॉडन डेरी स्थापित कर क्षेत्र के 30 से अधिक लोगों को भी रोजगार मुहैया कराया है। रम्पुरा गांव की यह डेयरी क्षेत्र के युवाओं के लिए प्रेरणा का माध्यम बन रही है।
 संजय लखौटिया

उल्लेखनीय है कि संजय लखौटिया ने अपने फार्म हाउस में मात्र तीन साल पहले डेयरी शुरु की। कड़ी मेहनत व लगन ने डेयरी व्यवसाय को उनकी आर्थिक समृद्धि का जरिया बना दिया है। उनकी डेयरी में वर्तमान में 350 छोटे बड़े जानवर हैं, जिसमें से 200 गाय दूध दे रही हैं। इन गायां से डेयरी में प्रतिदिन 2800 लीटर दूध का उत्पादन होता है। जिसमें से 1000 लीटर दूध आंचल डेयरी को दिया जाता है, शेष दूध स्थानीय व्यवसाईयों व लोगों के घर-घर जाकर बेचा जाता है। इस दूध की गुणवत्ता बेहतर होने के कारण बाजार में 18 रुपये प्रति लीटर के हिसाब से आसानी से बिक जाता है। मॉडर्न डेयरी के रुप में स्थापित इस डेयरी में अधिकांश काम मशीनों की मदद से किए जाते हैं, ताकि लोगों को हाईजिनिक दूध मिल सकें।

डेयरी में साफ सफाई की खास व्यवस्था के साथ ही सभी जानवरों का खुले में रखा जाता है। डेयरी में सभी जानवर क्रास ब्रीड नश्ल के हैं। जिसमें से एक गाय कम से कम 40 लीटरतकदूध देती है। सुमित लखौटिया बताते हैं कि डेयरी व्यवसाय को आर्गेनाइज ढंग से किया जाए तो इससे युवाओं को रोजगार का बेहतर विकल्प मिल सकता है।

डेयरी फार्म में रखी गयी गाय
डेयरी के साथ पोल्ट्री और मत्स्य पालन

रुद्रपुर। संजय लखौटिया का फार्म अब एक मॉडन फार्म के रुप में विकसित हो चुका है। इस फार्म में उन्होंने डेयरी के साथ ही पोल्ट्री, मत्स्य पालन व लोरिकल्चर का कार्य भी शुरु किया है। इन सभी क्षेत्रों में बेहतर उत्पादन कर उन्होंने बड़ी उपलब्धि हासिल की है। इस कार्य में छोटे भाई सुमित लखौटिया भी पूरी तरह से उनके साथ रहते हैं।





Sunday, April 10, 2011

पारंपरिक बीजों में सूखे को मात देने की ताकत

जैविक खेती में ही पहाड़ का भविष्य सुरक्षित

पारंपरिक बीजों का हाईब्रीड के बराबर उत्पादन

बीज बचाओ आंदोलन के संजोयक विजय जड़धारी से बातचीत

               (जहांगीर राजू रुद्रपुर)

मिट्टी, पानी, बीज और पेड़ बंद करो इनसे छेड़ की अवधारणा के साथ बीज बजाओ आंदोलन को राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाने वाले सामाजिक कार्यकर्ता विजय जड़धारी बताते हैं कि पारंपरिक बीजों में सूखे को भी मात देने की ताकत है। वर्ष 2009 में पहाड़ में पड़े सूखे के दौरान इस बात की पुष्टि हुई। उन्होंने कहा कि पारंपरिक व जैविक खेती में ही पहाड़ का भविष्य सुरक्षित है।बीज बचाओ आंदोलन के संजोयक विजय जड़धारी का मानना है कि हाईब्रीड व जीएम बीज देश के किसानों के लिए धोखा है। उन्होंने बताया कि हाईब्रीड बीज दो तीन फसलें तो अच्छी देते हैं, लेकिन इन बीजों के साथ होने वाले रासायनिक खादों के बढ़ते प्रयोग के कारण इसकी उत्पादन क्षमता पर भी व्यापक असर पड़ता है। इसके मुकाबले पारंपरिक बीज लंबे समय तक अच्छा उत्पादन देते हैं। इससे जहां खेतों की उर्वरा शाक्ति बने रहती है, वहीं सूखे व कम पानी में भी इसके उत्पादन पर ज्यादा अन्तर नहीं पढ़ता है। उन्होंने बताया कि वर्ष 2009 में पर्वतीय क्षेत्रों में पड़े भयानक सूखे के दौरान मढुवा व रामदाने का सबसे अच्छा उत्पादन हुआ। उन्होंने बताया कि जहां हाईब्रीड बीच उत्पादन के साथ ही लोगों के लिए ढेर सारी बिमारियां लेकर आते हैं वहीं पारंपरिक बीज पोष्टिकता के साथ ही हमें बेहतर स्वाद भी देते हैं। वैज्ञानिक भी शोध में इस बात की पुष्टि कर चुके हैं

उन्होंने बताया कि पारंपरिक बीजों में प्रकृति लडऩे के साथ ही कम पानी में भी बेहतर उत्पादन देने की क्षमता होती है। उन्होंने बताया कि पहाड़ में पैदा किए जाने वाले धान थापाचीनी, चायना चार, कांगुडी व लठमार तथा गेहूं की मुडरी ऐसे प्रजाति है जो हाईब्रीड के बराबर उत्पादन देती हैं। उन्होंने बताया कि हाईब्रीड बीज में होने वाले रासायनिक खादों के उपयोग के चलते मानव स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ रहा है। पंजाब में हाईब्रीड व रासायनिक खादों के बढ़ते प्रयोग से मानव डीएनए के कमजोर होने पुष्टि ने इस बात को सिद्ध कर दिया है। उन्होंने कहा कि लोगों को पारंपरिक बीजों के संरक्षण के साथ ही जैविक व पारंपरिक खेती को बढ़ावा देने पर ध्यान देना होगा। उन्होंने बताया कि जलवायु परिवर्तन के इस बदलते दौर में पारंपरिक खेती ही किसानों बेहतर उत्पादन दे सकती है।

पहाड़ में पारंपरिक बीजों के भंडार

रुद्रपुर। बीज बचाओ आंदोलन के संजोजक विजय जड़धारी ने बताया कि पहाड़ में अब भी पारंपरिक बीजों के भंडार मौजूद हैं। उन्होंने बताया कि उनके पास वर्तमान में धान की 80 प्रजातियों के संग्रह के साथ ही 350 प्रजातियों के बारे में जानकारी है। इसी तरह से गेहूं की 10 प्रजातियों का संग्रह व 3२ प्रजातियों की जानकारी है। मढुवे की 12 प्रजातियों की जानकारी है। झंगुरे की 8, रामदाने की 3, राजमा की 220, नौरंगी की 9, लोबिया की 8, भट्ट व सोयाबीन की 5 व तील की 4 प्रजातियों के साथ ही सब्जियों के बीजों की सैकड़ों प्रजातियों का संग्रह है।  

Monday, April 4, 2011

भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे की मुहिम का हिस्सा बनें

315 करोड़ हर साल घूसखोर नौकरशाहों के जेब में

एशिया प्रशांत क्षेत्र के भ्रष्ट देशों में भारत चौथे नंबर पर

                     (जहांगीर राजू रुद्रपुर)

भारत एक ऐसा देश बनाता जा रहा है जो भ्रष्टाचार की दौड़ में हर साल नए रिकार्ड बना रहा है। ताजा सर्वे के मुताबिक भारत जहां भ्रष्ट्र देशों की सूची में 86वें नंबर पर है, वहीं उसने अपना कद बढ़ाते हुए एशिया प्रशांत क्षेत्र के भ्रष्ट देशों की सूची में चौथा स्थान प्राप्त  है। स्थिति यह है कि भारत में प्रतिवर्ष 315 करोड़ रुपये घूस के रुप में भ्रष्ट नौकरशाहों की जेब में जाते हैं। पांच अप्रैल को जंतर मंतर में उपवास रखकर सोशियल एक्टिविस्ट अन्ना हजारे भ्रष्टाचार के खिलाफ अपनी मुहिम की शुरुआत करेंगे। आप भी हजारे की इस मुहिम का हिस्सा बनें।
भ्रष्टाचार के मामलों को अगर देखा जाए तो भारत में विकास की पूंजी का एक बड़ा हिस्सा भ्रष्ट नौकरशाहों की जेब में जाता है। मध्य प्रदेश में यदि एक भ्रष्ट आईएएस दंपति की संपत्ति का हवाला दिया जाए तो अरविंद जोशी व टीनू जोशी नामक इस दंपति ने भ्रष्टाचार से 500 करोड़ रुपये से भी अधिक की संपत्ति जमा की। अपनी दौलत को शेयर ट्रेडिंग में लगाकर उन्होंने 270 करोड़ रुपये कमाए। ऐसे ही कबाड़ व घोड़ा व्यवसायी हसन अली की संपत्ति को देखा जाए तो उसने पांच सालों में अपनी संपत्ति को 500गुना बढ़ा दिया। 54000 करोड़ की संपत्ति के मालिक इस व्यवसायी के पास इतनी अकूल संपत्ति कहां से आयी इसका अंदाजा किसी को नहीं है। ऐसे ही देश में भ्रष्ट आईएएस अधिकारियों व राजनैताओं की लंबी कतार है। इसी भ्रष्टाचार की बदौलत देश के विकास की 70 हजार करोड़ से अधिक की धनराशि स्विस बैंक में जमा है।

देश में भ्रष्टाचार के खिलाफ कठोर कानून नहीं होने के कारण अपराध करने के बावजूद दोषी खुले में हवा खा रहे हैं। देश में लागू भ्रष्टाचार निरोधक कानून-1988 के तहत दोषी व्यक्ति के लिए महज पांच साल की सजा का प्राविधान है। जिसमें दोषी साबित होने पर उसकी संपत्ति को जब्त किए जाने का कोई प्राविधान नहीं है। देश में भ्रष्टाचार के 29117 मामले चल रहे हैं। जिसमें से वर्ष 2009 में सुनवायी के बाद मात्र 3228 लोगों को सजा हो सकी, बांकी सभी सुबूतों के अभाव में बरी हो गए।
आप भी जन जागरुकता, ब्लाग, फेसबुक, ट्यूटर व नेट के माध्यम देशभर में चल रही भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम को आगे बढ़ाने के लिए गांधीवादी अन्ना हजारे के आंदोलन का हिस्सा बनें।

Saturday, April 2, 2011

क्रिकेट के खेल को महायुद्ध होने से बचाएं

खेल की मदद से तोड़ें दुश्मनी के बैरियर

121 करोड़ भारतीयों की जीत का जश्न बनें अमन का पेगाम
       
           जहांगीर राजू रुद्रपुर

वर्ष 1983 के बाद भारतीय क्रिकेट टीम ने 2011 में दोबारा विश्व कप जीतकर इतिहास रच दिया है। 121 करोड़ भारतीयों की जीत के रुप में देखे जा रहे इस विश्व कप को युद्ध के बजाए दुनियाभर के लोगों को आपस में जोडऩे वाले हथियार के रुप में प्रयोग किए जाने की जरुरत है ताकि क्रिकेट का यह खेल महायुद्ध व महासंग्राम के रुप में न देखा जाए।
दुनियाभर में लोकप्रिय इस खेल को दो देशों की बीच बन रही दूरियों को कम करने के लिए एक ब्रीज के रुप में प्रयोग किया जाना चाहिए न कि इसे महायुद्ध व महासंग्राम का नाम देकर दो देशों के बीच फिर से दरारें बढ़ाने वाले हथियार के रुप में। भारत व पाकिस्तान के बीच खेले गए सेमीफाइनल मुकाबले को जहां दोनों देशों के डिप्लोमेट्स ने भारत-पाक संबंधों को मधुर बनाने के हथियार के रुप में प्रयोग करना चाहा, वहीं क्रिकेट नाम पर पैसा बना रहे मीडिया जगत व सांप्रदायिक ताकतों ने इसे महायुद्ध व महासंग्राम का नाम दे दिया। मीडिया इस मैच को महायुद्ध बनाकर चटपटे समाचारों को परोसकर दोनों देशों के बीच मधुर संबंध बनाने की हो रही पहल को करारा झटका दिया, वहीं क्रिकेट से जुड़े लोगों ने मीडिया की इस भूमिका का विरोध किया। मीडिया की इसी भूमिका की बदौलत पूरे देश में इस सेमीफाइनल को महायुद्ध के रुप में ही देखा गया, इस दौरान जहां एक-एक रन व एक-एक बाउंड्री पर आतिशबाजी देखने को मिल रही थी वहीं भारत व श्रीलंका के बीच हुए फाइनल मैच के दौरान देश के लोगों के बीच इतना अधिक उत्साह देखने को नहीं मिला। अगर यही मैच भारत व पाक के बीच खेला जा रहा होता को शरारती लोग खून खराबा करने से भी नहीं चुकते और इसे वास्तविवक महासंग्राम का रुप देने में जुट जाते। ऐसे में समाज के लोगों के जिम्मेदारी होनी चाहिए कि वह क्रिकेट जैसे इस लोकप्रिय खेल को महायुद्ध व महासंग्राम होने से बचाएं। खेल को खेल ही रहने दिया जाए ताकि लोगों का खेल के प्रति उत्साह कभी भी कम न होने पाए। भारतीय क्रिकेट टीम ने 201१ का विश्व कप जीतकर जो इतिहास रचा है उसे विश्वभर में सभी देशों के बीच बेहतर संबंध बनाने के लिए उपयोग में किया जाए। 
भविष्य में भी हमें किसी भी खेल के लिए युद्ध व महायुद्ध शब्द के प्रयोग करने से बचते हुए खेल को खेल ही रहने देने का संकल्प लेना होगा, ताकि दो देशों के बीच विवादों की सीमाओं को तोडऩे वाले खेलों के प्रति लोगों का विश्वास कायम रहें। ऐसे में हम उम्मीद करते हैं कि भविष्य में भारत व पाकिस्तान के बीच होने वाले किसी भी खेल को महायुद्ध व महासंग्राम के रुप में नहीं देखा जाए और बेहतर खेल की मदद से दोनों देशों के बीच बढ़ रही दूरियों को कम किया जाए ताकि 121 करोड़ भारतीयों की जीत के इस जश्न को दुनियाभर में दोस्ती के पैगाम के रुप में याद किया जाए।



Friday, April 1, 2011

परमाणु ऊर्जा संयंत्र मानवीय सुरक्षा के लिए बड़ा खतरा

देशभर में परमाणु ऊर्जा के खिलाफ चलेगा अभियान

भारत में बनने वाले दुनिया के सबसे बड़े न्यूक्लियर प्लांट का होगा विरोध

आजादी बचाओ आंदोलन के राष्ट्रीय संयोजक बनवारी लाल शर्मा से खास बातचीत

जहांगीर राजू रुद्रपुर

आजादी बचाओ आंदोलन के राष्ट्रीय संयोजक व पूर्व आईएएस बनवारी लाल शर्मा ने कहा कि देश में एक भी परमाणु ऊर्जा संयंत्र स्थापित नहीं होने दिया जाएगा। जिसके विरोध में तारापुर से जैंतापुर तक न्यूक्लियर विरोधी मार्च निकाला जाएगा। इस मार्च में देशभर के वैज्ञानिक व सामाजिक कार्यकर्ता भागीदारी करेंगे।
श्री शर्मा ने कहा कि परमाणु ऊर्जा संयंत्र देश में मानवीय सुरक्षा के लिए बड़ा खतरा हैं। उन्होंने कहा कि जब जापान जैसा देश अपने परमाणु ऊर्जा संयंत्रों को सुरक्षित नहीं रख पा रहा है तो ऐसे में भारत को भी देश में परमाणु ऊर्जा संयंत्र लगाने से पहले सोचना चाहिए। उन्होंने बताया कि देश में हरियाणा, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल, आन्ध्र प्रदेश व तमिलनाडु में 6 न्यूक्लियर प्लांट स्थापित होने हैं। जैंतापुर (महाराष्ट्र) में 10 हजार मेगावाट क्षमता का दुनिया का सबसे बड़ा न्यूक्लियर प्लांट लगने जा रहा है। उन्होंने कहा कि भूकंप व सुनामी की लगातार बढ़ रही घटनाओं के चलते विश्व के किसी भी देश के न्यूक्लियर एनर्जी प्लांट सुरक्षित नहीं हैं। इसी स्थिति को ध्यान में रखते हुए आजादी बचाओ आंदोलन के तहत देशभर में न्यूक्लियर एनर्जी प्लांट के विरोध में लोगों को लामबंद करने का प्रयास किया जा रहा है।
इसी क्रम में हरियाणा के फतेहाबाद क्षेत्र में न्यूक्लियर प्लांट के विरोध में पिछले 2२0 दिनों से आंदोलन चलाया जा रहा है। उन्होंने बताया कि महाराष्ट्र के तारापुर क्षेत्र में चल रहे न्यूक्लियर एनर्जी प्लांट के दुष्परिणाम सामने आने लगे हैं। इस क्षेत्र में जहां लोग बड़े पैमाने पर कैंसर व बांझपन के शिकार हो रहे हैं। उन्होंने बताया कि जापान के फुकुशिमा दाइची में परमाणु संयंत्र चला रही कंपनी भी भारत में परमाणु संयंत्र स्थापित कर रही है। ऐसे में जब यह कंपनी जापान में अपने संयंत्र को सुरक्षित नहीं रख पा रही है तो वह भारत में संयंत्र  की सुरक्षा की क्या गारंटी दे पाएगी। उन्होंने बताया कि देशभर में लोगों को परमाणु ऊर्जा के खतरों से जागरुक करने के लिए आजादी बचाओ आंदोलन के बैनर पर न्यूक्लियर विरोधी मार्च निकाला जाएगा। 23 से 25 अप्रैल तक चलने वाला यह मार्च गुजरात के तारापुर से शुरु होकर महाराष्ट्र के जैंतापुर पहुंचकर संपन्न होगा। इस अभियान में देशभर के वैज्ञानिक, सामाजिक कार्यकर्ता, पर्यावरणविद् व जागरुक राजनैतिक कार्यकर्ता भागीदारी करेंगे।
न्यूक्लियर विरोधी मार्च के दौरान लोगों को ऊर्जा के न्यूक्लियर एनर्जी के खतरों के प्रति जागरुक किया जाएगा। उन्होंने कहा कि न्यूक्यिलर एनर्जी के बजाए हमें ऊर्चा के वैकल्पिक माध्यम सूरज की रोशनी, हवा व पानी तथा समुद्र की लहरों से बनने वाली बिजली की ओर भी ध्यान देना होगा। उन्होंने बताया कि वर्तमान में देश में 3 फीसदी बिजली न्यूक्लियर से प्राप्त हो रही है। यदि देश में 6 और न्यूक्लियर एनर्जी प्लांट स्थापित हो जाते हैं तो इससे परमाणु बिजली उत्पादन का प्रतिशत 3 से बढक़र 7 फीसदी तक पहुंच जाएगा। इससे बिजली उत्पादन में बहुत ज्यादा फर्क पडऩे वाला नहीं है। ऐसे में हमें वैकल्पिक ऊर्जा के दूसरे माध्मयों पर ज्यादा ध्यान देने की जरुरत है।