Sunday, December 5, 2010

अजी ये क्यों याद करेंगे इंद्रासन को .....


अनन्त यात्रा में भी नहीं मिला वैज्ञानिकों का प्यार

                                       (जहांगीर राजू रुद्रपुर से)

स्वतंत्रता संग्राम सेनानी इन्द्रासन सिंह को अंतिम विदाई देने पहुंचे लोग

उत्तर भारत को जी भर कर भात खिलाने की मुहिम का सिपाही चला गया। इंद्रासन धान की ब्रीड  को पहचान ने, उसे सुधारने वाले इंद्रासन सिंह की सांसों की डोर टूट गई। लेकिन उससे क्या ? शानदार फार्म हाउसों के मालिक बड़े किसान, कृषि वैज्ञानिक और खेती के सरकारी महकमों की नींद इंद्रासन के चले जाने से भी नहीं टूटी। जिन कंधों को कभी हरित क्रांति के जनक अमेरिकी कृषि वैज्ञानिक नार्मन बोरलॉग ने थपथपाया था, वह अब खाक में मिल चुके हैं। लेकिन किसी की यशगाथाओं को चिताएं नहीं जला सकतीं। इंद्रासन रहें न रहें, वह आम लोगों के दिलों में तो रहेंगे ही। देवलथल पोस्ट ने यह जानने की कोशिश की कि कृषि विश्वविद्यालयों, कृषि विभाग और राजनीतिक दलों के कृषि प्रकोष्ठों ने क्या इंद्रासन की मौत का कोई संज्ञान लिया? जवाब ग्रामीण प्रतिभाओं को शर्मिंदा करने वाला है। किसी ने इंद्रासन सिंह को जानने से इनकार कर दिया तो कोई बस सतही जानकारी दे सका। 
क्या यह बस एक स्वतंत्रता सेनानी का हमेशा के लिए जाना भर है? नहीं वह सेनानी थे, यह एक पक्ष है। उस बूढे़ आदरणीय ठाकुर के व्यक्तित्व का एक शानदार पक्ष और भी था। वह था गरीबों को भर पेट भात खिलाने का जज्बा। जिसके लिए उन्होंने रोग से मर रहंे धान के खेत के केवल दो स्वस्थ पौधों पर चार महीने मेहनत की थी। साठ सत्तर के दशक की उनकी उस अथक मेहनत ने ही उत्तर भारत को धान की एक ऐसी ब्रीड दी, जिसके मुकाबले की ब्रीड अब तक कोई कृषि विवि नहीं दे पाया है। इंद्रासन सिंह को अपनी इस खोज को मान्यता दिलाने के लिए 3२ सालों तक संघर्ष करना पड़ा। जिसके बाद नेशनल इनोवेसन फाउंडेशन ने उन्हें 2005 में तत्कालीन राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम आजाद के हाथों सम्मानित करवाया। तब जाकर देश के कृषि वैैज्ञानिकों की नींद टूटी। इसके बाद पंतनगर विश्वविद्यालय के कृषि वैज्ञानिकों ने इंद्रासन धान का पेटेंट कराने की मुहिम शुरु की। वर्ष 2010 में दो माह पूर्व इस धान को पेटेंट कर लिया गया। गनीमत की बात यह रही कि इस धान को इंद्रासन सिंह के नाम से ही पेटेंट कराया गया। वरना इस देश के वैज्ञानिक कुछ भी कर सकते हैं। बावजूद इसके मृत शय्या में लेटे वैज्ञानिक कृषि के इस पितामह को याद करने के लिए उनकी अनन्त यात्रा में पंतनगर विश्वविद्यालय का कोई भी वैज्ञानिक नहीं पहुंचा। शायद आठ पास एक किसान का देश के बड़े कृषि वैज्ञानिकों को चुनौती देकर धान की नईं किश्म को इजाद करना इसका कारण रहा हो।
इंद्रासन सिंह की मौत के बाद उसका संज्ञान न लेना क्या इसी की खिसियाहट है? समाजिक क्षेत्रों में सक्रिय ग्रामीण प्रतिभाओं के हामी लोग कहते हैं, हां यह खिसियाहट ही है। बड़ी डिग्रियों वाले इंद्रासन की सराहना को अपनी हार मानते हैं। 


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